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29 दिसंबर 2014 दिन शनिवार कड़ाके की ऐसी ठंड
जो किसी वयस्क की भी हड्डियां गला दें एेसे में मैं
अपनी माँ के साथ अपने शहर से लगभग 5 कि.मी. दूर
कलेक्ट्रेट ऑफिस जा रही थी ..
फिर सोचा पहले गाड़ी में पेट्रोल डलवा लेती हूँ
इसलिए अपनी माँ को सड़क पर एक किनारे खडा़ कर
दिया…पेट्रोल डलवाकर मैं अपनी माँ के पास
पहुचती उससे पूर्व ही मैं गाड़ी से गिर पड़ी.. जैसे की
किसी ने मेरी गाड़ी को जकड़ लिया हो… मेरे समझ
से परे थी ये बात की जो लड़की शहरों की भीड़
भाड़ में 80-90 कि.मी.प्रति रफ्तार से बाइक चला
लेती हो वो महज़ 10 कि. मी. की रफ्तार में कैसे
गिर सकती है..
पता नही मुझे कितने टाँके लगने वाले हैं ??? ना जाने
कितनी हड्डियां टूट गई हैं ????
ऐसे ना जाने कितने अनगिनत सवाल मेरे ज़हम में आने
लगे.. मैं तो जैसे अपने सवालों में ही गोते खाने
लगी….
अचानक ही किसी की आवाज़ आई.. ” मोना देखो
तुमको किस ने उठाया ” तब शा़यद मैं होश में आई कि
ये कोई और नही मेरी माँ है जिनको मैं एक तरफ
खड़ा करके पेट्रोल डलाने गई थी.. मैंने नज़र उठाके
देखा तो कुछ समझ ही नही आया कि क्या
प्रतिक्रिया दूँ … मेरी आँखों में आँसू आ रहे थे के मैं
सबके सामने गाड़ी से गिर गई हूँ.. मैं आँसूओं को
अपनी हंसी से छुपाने का प्रयास करने लगी.. और
शायद खु़द को अपशब्द कहने लगी.. वो शख्स जिसने
मेरी मदत की वो मेरी गाड़ी साफ कर रहा था
क्योंकि सीट में धूल लगी हुई थी… वो शायद मेरी
फेक हँसी को गुस्सा समझ बैठा था.. इसलिए उसने
अपने पैर दो कदम पीछे ले लिए.. मैने जब खुद को सही
सलामत पाया तो उस शख्स को देखने लगी.. उसने
ऐसी ठंड में फटे हुए कपडे़ पहने हुए थे जिससे उसका बदन
दिख रहा था और पुराने से घसीटे हुए जूते जिनमें से मैं
उसके बाहर झांकते हुए अंगूठे को देख पा रही थी.. उस
शक्स ने मुझसे कहा – काय बेटा तुम ठीक तो हों???
कछु जादा तो नही लग गई ? बुरा ना मानियो हमने
आपको उठा दओ…
मैंने अपनी माँ को देखा तो वो मुस्कुरा रहीं थी..
हमने उनको सिर्फ धन्यवाद कहा और ऑफिस की
तरफ निकल लिए… जैसे जैसे मैं अपनी मंजिल की तरफ
बढ़ रही थी वैसे वैसे मेरा दर्द भी बढ़ता जा रहा था..
उस वक्त मेरे दिमाग में केवल एक ही खयाल चलने लगा
कि सुबह सुबह से हम किसी के धंधे को बुरा कहने से
नही चूकते.. कभी छोटी जाति के लोगों को नींचा
बताना नही भूलते.. ये तो वही शक्स था जिसको
दुनिया ने मेहतर, जमादार, भंगी ऐसे ना जाने कितने
नाम दिए हैं केवल इंसान छोड़कर.. पर वो मेहतर अपनी
इंसानियत नही भूला.. जो पढ़ा लिखा नही था..
पर हम शायद इंसानियत भूलते जा रहे हैं.. मेरी माँ की
हंसी मैं समझ चुकी थी वो खुश थी मेरे गिरने पे..
क्योंकि वो मेहतर हकीकत में मुझे इंसानियत का पाठ
पढ़ा गया…
उस समय अपने सवालों से इस कदर घिरी हुई थी के ढंग
से उनका शुक्रिया भी ना कर पाई..पर आज मैं उस
इंसान को ढूंढने की कोशिश करती हूँ.. कि काश मैं
उनके किसी काम आ जाती…
जो कुछ भी हुआ उस दिन बहुत अच्छा हुअा..
इंसानियत का रिश्ता मेरे लिए अब सबसे अहम हो
गया….
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